स्वर शास्त्र
स्वर का अर्थ नासिका के दोनों छिद्रों द्वारा
निरन्तर प्रवाहित होने वाली प्राण वायु है। ‘दाहिना
स्वर’ से तात्पर्य नासिका के दाहिने छिद्र से
प्रवाहित होने वाली वायु है तो ‘बायां
स्वर’ से तात्पर्य नासिका के बायें छिद्र से
प्रवाहित होने वाली वायु है। इन शब्दों को ‘नाड़ी’ शब्द से भी पुकारते हैं तो इन्हें इड़ा
एवं पिंगला नाम से भी पुकारते हैं। दाहिने स्वर को सूर्य नाड़ी और बायें स्वर को
चन्द्र नाड़ी कहते हैं। नाम का प्रवाह एक-एक घंटे के बाद परिवर्तित होता रहता है।
इसे स्वर का बदलना कहते हैं। एक घंटे सूर्य स्वर चलता है तो एक घंटे चन्द्र स्वर।
स्वर परिवर्तन के समय स्वरों का संधि-काल भी आता है। संधि-काल में नाक के दोनों
स्वरों का प्रवाह समान हो जाता है। यह संधिकाल अध्यात्म के अभ्यास का समय है। योगी
जन अभ्यास से इच्छानुसार समय प्रवाह चलाते हैं।
समान प्रवाह ही सुषुम्ना नाड़ी है। इसे शून्य
स्वर, जीव स्वर या ‘रिक्त-स्वर’ भी कहते हैं। दोनों नाडिय़ों के संधिकाल
में सुषुम्ना नाड़ी बहती है। सुषुम्ना प्रवाह के समय किया गया कोई सांसारिक कार्य
शुभ फलदायक नहीं होता, इसलिए इसे रिक्त स्वर कहते हैं।
स्वर-विज्ञान के आदि प्रवत्र्तक शिव हैं। शिव
ने यह योग पहले पार्वती को सिखाया, बाद
में लोक में फैला।
नाडिय़ों का स्थान : शरीर के मध्य नाभि स्थान से असंख्य
नाडिय़ां निकली हैं। योगियों के मतानुसार शरीर में 72000 नाडिय़ां हैं। इन्हीं नाडिय़ों से निर्मित अनेक चक्र हैं जो वायु, प्राण और देह के आश्रित हैं। सब
नाडिय़ों में दस नाडिय़ां प्रधान एवं श्रेष्ठ हैं। ये दस नाडिय़ां हैं- इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, हस्तिजिह्वया , पूषा, यशस्विनी, अलंबुबा, कूहू और शंखिनी। इड़ा नाड़ी वाम भाग में, पिंगला दक्षिण भाग में और सुषुम्ना
मध्यप्रदेश में है। गांधारी बायें नेत्र में तथा हस्तिजिह्वया दाहिने नेत्र में है। दाहिने कान में
पूषा, बायें कान में यशस्विनी और मुख में
अलंबुबा नाड़ी है। लिंग देश में कुहू और गुदा स्थल में शंखिनी है।
वायु का स्थान : नाडिय़ों का आश्रय वायु है। पांच वायु
प्रधान हैं - प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। प्राण वायु शरीर के ऊपनी
भाग हृदय में और अपान वायु नाभिदेश में नीचे रहती है। समान वायु नाभि देश में, उदान कंठ में और व्यान सारे शरीर में
व्याप्त रहती है। इनके अतिरिक्त नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय नाम से पाँच और महत्त्वपूर्ण नाडिय़ां हैं जिनके
द्वारा क्रियाएं होती हैं यथा - उगलना, छींकना, नेत्रोन्मीलन आदि।
झड़ा, पिंगला
और सुषुम्ना नाडिय़ों का प्रवाह प्राणवायु के द्वारा होता है। इन्हीं नाडिय़ों के
आधार पर ज्ञान प्राप्त किया जाता है। जब बायां स्वर चल रहा हो तो समझना चाहिए, इड़ा नाड़ी चल रही है। जब दाहिना स्वर
चलता है तो समझना चाहिए पिंगला नाड़ी चल रही है। सम स्वर होने का अर्थ है कि
सुषुम्ना में प्राण प्रवाहित हो रहे हैं। इड़ा में चन्द्रमा, पिंगला में सूर्य और सुषुम्ना में हंस
स्थित है। हंस जीवात्मा को कहते हैं।
स्वर की पहचान : दोनों नाकों में प्राण का प्रवाह समान
नहीं होता। किसी समय एक नासिका में प्राणों का प्रवाह तीव्र गति से होता है तो
दूसरी में धीमे-धीमे। कभी दूसरी में तीव्र गति से होता है तो पहली में धीरे-धीरे।
कभी-कभी दोनों नासिकाओं में प्राणों का प्रवाह समान गति से प्रवाहित होता है।
इन्हीं प्रवाहों से स्वर का ज्ञान किया जाता है। इन स्वरों के प्रवाह का समय
प्रकृति द्वारा नियत किया हुआ है। जिस प्रकार दिन, रात, मौसम, ग्रह इत्यादि की गति और नियम निश्चित हैं उसी प्रकार स्वरों का भी
समय निश्चित है।
स्वर प्रवाह का समय
1. सूर्योदय
से निश्चित होता है।
2. प्रति
एक घंटे बाद बदल जाता है।
3. संधि
समय में सुषुम्ना चलती है।
4. सुषुम्ना
का प्रवाह एक से तीन मिनट तक रहता है।
5. प्रवाह
इच्छानुसार बदला जा सकता है।
6. पक्ष
ज्ञान आवश्यक है।
- आचार्य अनुपम जौली