प्राण वायु मनुष्य के शरीर में श्वास लेने पर नासिका के माध्यम से प्रवेश करती है। नासिका में दो छिद्र होते हैं, जो बीच में एक पतली हड्डी के कारण एक दूसरे से अलग रहते हैं। मनुष्य कभी दाहिने छिद्र से और कभी बाँएँ छिद्र से श्वास लेता है। दाहिने छिद्र से श्वास लेते समय “दाहिना स्वर” तथा बाँएँ छिद्र से श्वास लेते समय “बाँयाँ स्वर” चलता है। अर्थात् श्वास-प्रश्वास की गति जिस नासिका छिद्र से प्रतीत हो, उस समय वही स्वर चलता समझें। यदि दोनों नासिका-छिद्रों से समान रुप से निःश्वास होता हो, तो उसे “मध्य स्वर” कहते हैं। यह स्वर प्रायः उस समय चलता है, जब स्वर परिवर्तन होने को होता है।
वस्तुतः नासिका के भीतर से जो श्वास निकलती है, उसी का नाम “स्वर” है। जब दाहिना स्वर चलता हो तो, सूर्य का उदय जानना चाहिए। इसीलिए दाहिने स्वर को “सूर्य स्वर” भी कहते है तथा बाँएँ स्वर को “चन्द्र स्वर”।
स्वर का सम्बन्ध नाड़ियों से है। यद्यपि शरीर में ७२,००० नाड़ियाँ हैं तथापि इनमें से २४ प्रधान है और इन २४ में से १० अति प्रधान तथा इन १० में से भी ३ नाड़ियाँ अतिशय प्रधान मानी गई है, जिनके नाम इड़ा, पिंगला तथा सुषम्णा है।
शरीर में मेरु-दण्ड के दक्षिण (दाहिने) दिशा की तरफ पिंगला (सूर्य) नाड़ी, वाम (बाँईं) तरफ इड़ा (चन्द्र) नाड़ी तथा दोनों के मध्य सुषम्णा नाड़ी है। सुषम्णा नाड़ी के प्रकाश से दोनों नथुनों से स्वर चलता है।
वस्तुतः नासिका के भीतर से जो श्वास निकलती है, उसी का नाम “स्वर” है। जब दाहिना स्वर चलता हो तो, सूर्य का उदय जानना चाहिए। इसीलिए दाहिने स्वर को “सूर्य स्वर” भी कहते है तथा बाँएँ स्वर को “चन्द्र स्वर”।
स्वर का सम्बन्ध नाड़ियों से है। यद्यपि शरीर में ७२,००० नाड़ियाँ हैं तथापि इनमें से २४ प्रधान है और इन २४ में से १० अति प्रधान तथा इन १० में से भी ३ नाड़ियाँ अतिशय प्रधान मानी गई है, जिनके नाम इड़ा, पिंगला तथा सुषम्णा है।
शरीर में मेरु-दण्ड के दक्षिण (दाहिने) दिशा की तरफ पिंगला (सूर्य) नाड़ी, वाम (बाँईं) तरफ इड़ा (चन्द्र) नाड़ी तथा दोनों के मध्य सुषम्णा नाड़ी है। सुषम्णा नाड़ी के प्रकाश से दोनों नथुनों से स्वर चलता है।
दाहिना-स्वर | बायाँ-स्वर | मध्य-स्वर | |
ग्रह | सूर्य | चन्द्र | राहु |
नाड़ी | पिंगला | इड़ा | सुषुम्णा |
प्रकृति | उग्र | सौम्य | मिश्रित |
धातु | पित्त | कफ | वायु |
लिंग | पुरुष | स्त्री | नपुंसक |
देवता | शिव | शक्ति | अर्द्ध-नारीश्वर |
वर्ण | कृष्ण | गौर | मिश्रित या धूम्र |
काल | दिवस | रात्रि | सन्ध्या |
प्रबल तत्त्व | अग्नि, वायु | जल, पृथ्वी | आकाश |
संज्ञा | चर | स्थिर | द्वि-स्वभाव |
वार | रवि, मंगल | सोम, बुध | बुध (या गुरु) |
पक्ष | कृष्ण | शुक्ल | * |
तिथि | कृष्ण पक्ष-१,२,३,७,८,९,१३,१४,३० शुक्ल पक्ष-४,५,६,१०,११,१२ | शुक्ल पक्ष-१,२,३,७,८,९,१३,१४,१५ कृष्ण पक्ष-४,५,६,१०,११,१२ | * |
मास | वैशाख, श्रावण, कार्तिक, माघ | ज्येष्ठ, भाद्रपद, मार्गशीर्ष, फाल्गुन, वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर, मीन | आषाढ़, आश्विन, पौष, चैत्र |
संक्रान्ति | मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु, कुम्भ | वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर, मीन | * |
राशि | १, ४, ७, १० | २, ५, ८, ११ | ३, ६, ९, १२ |
नक्षत्र | अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, उत्तराषाढ़, अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती, पूर्वाभाद्रपद, रोहिणी | आश्लेषा, मघा, पूर्वा-फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, ज्येष्ठा | मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य |
संख्या | विषम | सम | शून्य |
स्थिति | नीचे, पीछे, दाहिने | ऊपर, बाएँ, सामने | * |
दिशा | पूर्व, उत्तर | पश्चिम, दक्षिण | कोण |
जब एक स्वर को बदल कर दूसरा स्वर आ रहा हो, तो उस समय “स्वर-संक्रान्ति” होती है। जितने समय दोनों स्वर चलें, वह समय “विषुवत्-काल” कहलाता है।
स्वरों की अवस्था
जब श्वास बाहर निकल रही हो, तो स्वर की निर्गुण अवस्था होती है और स्वर को निर्गुण स्वर कहा जाता है। जब श्वास नासिका के भीतर जा रही हो, उस समय स्वर की सगुण अवस्था होती है तथा स्वर को सगुण स्वर कहते हैं। जो स्वर चल रहा हो, उसे उदित स्वर कहा जाता है और बन्द स्वर को अस्त स्वर कहते हैं। इन्हें क्रमशः पूर्ण तथा रिक्त स्वर भी कहते हैं।
स्वर सगुण और उदित हो, तो कार्य सिद्ध हो। इसके विपरीत हो, तो कार्य की हानि होती है।
जब श्वास बाहर निकल रही हो, तो स्वर की निर्गुण अवस्था होती है और स्वर को निर्गुण स्वर कहा जाता है। जब श्वास नासिका के भीतर जा रही हो, उस समय स्वर की सगुण अवस्था होती है तथा स्वर को सगुण स्वर कहते हैं। जो स्वर चल रहा हो, उसे उदित स्वर कहा जाता है और बन्द स्वर को अस्त स्वर कहते हैं। इन्हें क्रमशः पूर्ण तथा रिक्त स्वर भी कहते हैं।
स्वर सगुण और उदित हो, तो कार्य सिद्ध हो। इसके विपरीत हो, तो कार्य की हानि होती है।
अनुभवसिद्ध है कि शकुन अथवा किसी प्रश्न के उत्तर के लिए नाक से चल रहे श्वास को समझकर कोई कार्य करें तो उत्तम फलदायक सिद्ध होता है।
दाहिने स्वर (सूर्य-स्वर, पिंगला नाड़ी)- इस श्वास के चलते क्रूर कर्म, चर कार्य, उग्र कर्म, अस्त्र-शस्त्र-अभ्यास, शास्त्राभ्यास, स्त्री के साथ संसर्ग (सम्भोग), यन्त्र-तन्त्र-निर्माण, राज-पुरुष-दर्शन, युद्ध (वाद-विवाद या मुकदमा-न्यायालय), स्नान एवं शौच, नदी/समुद्र पार की यात्रा, चिकित्सकीय कार्य, विधारम्भ, वाहन खरीदना, वाहन पर चढ़ना, पर्वतारोहण, नौकारोहण, तैराकी, मद्य-पान, द्यूत-क्रीड़ा, शिकार, उग्र मन्त्र-साधना, योगाभ्यास, अध्ययन, भोजन, शयन, शेयर इत्यादि खरीदना, मशीनरी, गृहोपयोगी सामान खरीदना, क्रय, विक्रय, नया बही-खाता लिखना-लिखवाना, पत्र-लेखन, ईंट-पत्थर, लकड़ी और रत्न आदि का काटना-छाँटना, शत्रु के घर जाना, नौकरी जैसे कार्य सदैव सिद्ध होते हैं।
दाहिने स्वर से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण कार्यों को यदि कृष्ण-पक्ष में रवि, मंगल या शनिवार को दाहिने स्वर के उदय के समय किया जाए, तो सफलता मिलती है।
दाहिने स्वर से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण कार्यों को यदि कृष्ण-पक्ष में रवि, मंगल या शनिवार को दाहिने स्वर के उदय के समय किया जाए, तो सफलता मिलती है।
इडा- जब इडा अर्थात बाएं नासा छिद्र से श्वास चल रहा हो तो सौम्य कर्म, स्थिर कार्य, शान्ति कर्म, किसी से मित्रता करना, देव-दर्शन, देव-प्रतिष्ठा, मन्दिर निर्माण, पौष्टिक कार्य, गृहप्रवेश, विवाह, मकान की नीँव रखना, जलाशय, कुआँ, बाग-वाटिका निर्माण, खेतीबाडी, मित्रता, व्यापार-उद्योग-स्तापना, ग्राम-नगर बसाना, अनाज संग्रह, वस्त्र-आभूषण-सौन्दर्य प्रसाधन इत्यादि खरीदना, धार्मिक अनुष्ठान, कठिन/गम्भीर रोगों की चिकित्सा, भूमी खरीदना,स्त्री श्रंगार, नौकरी इत्यादि के लिए इन्ट्रव्यू देने जाना, संगीत-नृत्य सीखना प्रारंभ करना, रसायन-कर्म, दूर-गमन, प्रेम-निवेदन, प्रार्थना, बन्धु-मिलन, राज-तिलक, पद-ग्रहण, लघु शंका आदि कार्य शुभ रहते हैं।
बाँएँ स्वर में वर्णित महत्त्वपूर्ण कार्यों को यदि शुक्ल पक्ष में सोम, गुरु या शुक्रवार को किया जाए, तो सफलता मिलती है।
बाँएँ स्वर में वर्णित महत्त्वपूर्ण कार्यों को यदि शुक्ल पक्ष में सोम, गुरु या शुक्रवार को किया जाए, तो सफलता मिलती है।
सुषुम्ना- प्राणी के शरीर में स्थित सुषुम्ना समस्त कार्यों के लिए विपरीत अथवा अशुभ ही मानी जाती है। इसके चलते अगर आप इसी कार्य हेतु प्रस्थान करें तो वो कार्य कभी भी फलीभूत नहीं हो सकता। केवल पूजा-पाठ,अनुष्ठान इत्यादि धार्मिक कृत्य ही इस स्वर के चलते सफल होते हैं।
ईश्वरे चिन्तिते कार्यं योगाभ्यासादि कर्म च ! अन्यत्र न कर्तव्यं जय लाभ सुखैषिभि:!!
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