Sunday, August 3, 2014

शनि पीड़ा से मुक्ति का सरल व निश्चित उपाए

दशरथ की शनिदेव स्तुति 


पद्म पुराण में शनि के दोष और शनि पीड़ा से मुक्ति के लिए बहुत ही सुन्दर कथा का वर्णन आता है |
पद्म पुराण के अनुसार शनि देव के नक्षत्रो में भ्रमण के दौरान कृतिका नक्षत्र के अंतिम चरण की उपस्थिति पर ज्योतिषियों ने राजा दशरथ जी को बताया की अब शनिदेव रोहाणी नक्षत्र को भेदकर जाने वाले है, जिसके फलस्वरूप पृथ्वी पर आने वाले बारह वर्ष तबाही के रहेंगे, अकाल पड़ेगा, महामारी फैलेगी इत्यादि |
इस पर राजा दशरथ ने मुनि वशिष्ठ जी आदि ज्ञानियों को बुलाकर इसका उपाए पूछा, जिसपर श्री वशिष्ठ जी ने बताया इसका कोई भी उपाए संभव नहीं है ये तो ब्रह्मा जी के लिए भी असाध्य है | यह सुनकर राजा दशरथ परेशान हो कर, बहुत ही साहस जुटाकर जनता को कष्ट से मुक्ति के लिए स्वयं ही अपने दिव्य अस्त्र व दिव्य रथ लेकर सूर्य से सवा लाख योजन ऊपर नक्षत्र मंडल में पहुंच गए |
महाराजा दशरथ रोहाणी नक्षत्र के आगे अपने दिव्य रथ पर खड़े हो गए और दिव्य अस्त्र को अपने धनुष में लगाकर शनिदेव को लक्ष्य बनाने लगे | इसपर शनिदेव कुछ भयभीत हुए परन्तु जल्दी ही हस्ते हुए उन्होंने महाराजा दशरथ को कहा राजा मेरी दृष्टि के सामने जो भी आता है वो भस्म हो जाता है | मानव, देवता, असुर सभी मेरी दृष्टि से भयभीत होते है परन्तु तुम्हारा तप, साहस, व निस्वार्थ भाव निश्चित सरहानीय है | मैं तुमसे प्रसन्न हूँ तुम्हारी जो भी इच्छा वो ही वर मांग लो | इसपर महाराजा दशरथ ने शनिदेव से कहा की हे शनिदेव कृपया रोहाणी नक्षत्र का शकट भेद न करे | शनिदेव ने प्रसन्नता पूर्वक महाराजा दशरथ को ये वर दे दिया साथ ही एक और वर मागने के लिए कहा | इसपर राजा दशरथ ने शनिदेव से बारह वर्षो के विनाश न करने का वचन लिया जिसे भी शनिदेव ने स्वीकार कर लिया |
इसके बाद महाराजा दशरथ ने धनुष बाण रखकर हाथ जोड़कर शनिदेव की स्तुति निम्न प्रकार से की -
नमः कृष्णाय नीलाय शीतिकण्ठनिभाय | नमः कालाग्निरूपाय कृतान्ताय वै नमः ||
नमो निर्मांसदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय | नमो विशालनेत्राय शुष्कोदरभायकृते ||
नमः पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे वै पुनः | नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोस्तु ते ||
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नमः | नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करलिने ||
नमस्ते सर्व भक्षाय बलीमुख नमोस्तु ते | सूर्यपुत्र नमस्तेस्तु भास्करेभयदाय ||
अधोदृष्टे नमस्तेस्तु संवर्तक नमोस्तु ते | नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोस्तु ते ||
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय | नमो नित्यं क्षुधातार्याय अतृप्ताय वै नमः ||
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेस्तु कश्यपात्मजसूनवे | तुष्टो ददासि वै राज्यम रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ||
देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा: | त्वया विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः ||
प्रसादम कुरु में देव वराहोरहमुपागतः || ( पद्म पुराण उ० ३४|२७-३५ )
स्तोत्र रूप में शनिदेव अपनी स्तुति सुनकर प्रसन होकर एक और वर मागने के लिए महाराजा दशरथ से कहा | राजा ने शनिदेव से कहा की आप किसी को भी कष्ट कभी भी दे | इसपर शनिदेव ने कहा राजन ये संभव नहीं है | मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार ग्रहो के द्वारा सुख कष्ट भुगतता है | व्यक्ति की जन्मपत्रिका की दशा, अन्तर्दशा गोचर के अनुसार मैं कष्ट प्रदान करता हूँ |
किन्तु मैं राजन तुम्हे आशीर्वाद देता हूँ की यदि कोई मनुष्य श्रद्धा एकाग्रता से तुम्हारे द्वारा रचित उक्त स्तोत्र का पाठ जाप करे तथा मेरी लोहे की प्रतिमा पर शमी के पत्तो से पूजा करे साथ ही साथ काले तिल, उड़द, काली गाय का दान करे तो दशा, अन्तर्दशा गोचर द्वारा उत्पन्न पीड़ा का नाश होगा और मैं उसकी रक्षा करूँगा |

तीनो वरदानों को प्राप्त कर महाराजा दशरथ शनिदेव को प्रणाम कर वापिस अपने रथ पर बैठ अयोद्या लौट गए|