Friday, June 30, 2017

नवरात्रि में करें दुर्गासप्तशती का प्रयोग, रातों रात बदल जाएगी किस्मत

नवरात्रि में करें दुर्गासप्तशती का प्रयोग, रातों रात बदल जाएगी किस्मत


किसी शुभ मुहूर्त में स्नान,ध्यान आदि से शुद्ध होकर आसन शुद्धि कर लेनी चाहिए। इसकी बाद स्वयं के ललात पर भस्म, चंदन अथवा रोली का तिलक लगाकर शिखा बांध लें। अब पूर्वाभिमुख होकर प्राणायाम करें व गणेश, ईष्टदेव, शिव, पितृदेव व अन्य सभी देवजनों का प्रणाम कर मां भगवती की पंचोपचार पूजा करें।

इसके बाद मां का ध्यान करते हुए पुस्तक की पूजा करें। तत्पश्चात् मूल नवार्ण मंत्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिए। इसके बाद उत्कीलन मन्त्र का जाप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में 21-21 बार होता है। अंत में मृतसंजीवन विद्या का जप कर दुर्गासप्तशती के पाठ आरंभ करें।

दुर्गासप्तशती के पाठ करने से व्यक्ति के समस्त कष्ट दूर होकर उसकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। आइए जानते हैं कि दुर्गा सप्तशती के किस अध्याय के पाठ से कौनसा फल मिलता है।

1. प्रथम अध्याय का पाठ करने हर प्रकार की चिन्ता व तनाव दूर होगा।
2. द्वितीय अध्याय का पाठ करने से मुकदमे, विवाद व भूमि आदि से संबंधित मामलों में विजय मिलेगी।
3. तृतीय अध्याय का पाठ करने से मां भगवती की कृपा से आपके शत्रुओं का दमन होगा।
4. चतुर्थ अध्याय का पाठ करने से आपके आत्म-विश्वास व साहस में वृद्धि होगी।
5. पंचम अध्याय का पाठ करने से घर व परिवार में सुख शान्ति बनी रहती है।
6. षष्ठम अध्याय का पाठ करने से मन का भय, आशंका व नकारात्मक विचारों में कमी आएगी।
7. सप्तम अध्याय का पाठ विशेष कामना की पूर्ति के लिए किया जाता है।
8. अष्टम अध्याय का पाठ करने से पति-पत्नी का आपसी तनाव समाप्त होता है और मनचाहे साथी की प्राप्ति भी होती है।
9. नवम अध्याय का पाठ करने से परदेश गया व्यक्ति या खोया हुआ व्यक्ति शीघ्र ही वापस लौट आता है।
10. दशम अध्याय का पाठ करने से पुत्र की प्राप्ति होती है व मान-सम्मान में वुद्धि होती है।
11. ग्यारहवें अध्याय का पाठ करने से व्यवसाय में प्रगति होती है।
12. द्वादश अध्याय का पाठ करने से घर की कलह दूर होती है और बिगड़े हुए काम बनने लगते हैं।
13. त्रयोदश अध्याय का पाठ करने से घर का वास्तु दोष, मानसिक क्लेश, परिवार की प्रगति में आ रही बाधा दूर होती है।


Ramal Jyotish Acharya "Anupam Jolly", www.astrologyrays.com

गुप्त नवरात्री भाग 2


नवरात्रि के पांचवे दिन करें मां स्कंदमाता की पूजा, मिलेगी दुनिया की सब खुशियां

नवदुर्गाओं में मां आद्यशक्ति के पांचवे स्वरूप स्कंदमाता की आराधना नवरात्रि के पांचवे दिन की जाती है। इस दिन साधक का मन विशुद्धि चक्र में स्थित होता हैं। इस दिन मां स्कंदमाता की आराधना करने से भक्तों की समस्त, दैहिक, दैविक और भौतिक कामनाओं की इच्छापूर्ति होती है और वह दिव्य शक्तियों को प्राप्त कर समस्त प्रकार के सुख प्राप्त करता है।


ऐसा है इनका स्वरूप

मां स्कंदमाता चतुर्भुजरूप धारी तथा सिंह पर सवार है। उनकी गोद में देवताओं के सेनापति कार्तिकेय विराजमान है, इसी से उन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। इनका गौरवर्ण स्वरूप अत्यन्त शांत तथा भक्तों के समस्त कष्ट हर उन्हें सुख देने वाला है।


ऐसे करें पूजा

सुबह स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त होकर श्वेत रंग के वस्त्र धारण करें तथा विधिवत मां स्कंदमाता की आराधना करें। उनके स्वरूप का ध्यान करते हुए निम्न मंत्र का 108 बार जप करें। उन्हें पुष्प, माला, आदि अर्पित करें तथा केले का भोग लगाएं और गरीबों को भी केले का दान करें। इससे घर-परिवार में सुख-शांति आती है और साधक धर्म के मार्ग पर सफलतापूर्वक चलने के लिए अग्रसर होता है।


सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी

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शीघ्र विवाह हेतु नवरात्रि के छठे दिन करें मां कात्यायनी की पूजा, अन्य इच्छाएं भी होती है पूरी


नवरात्रि के छठे दिन मां भगवती के कात्यायनी स्वरूप का पूजन किया जाता है। इनकी आराधना और पूजा से भक्तों के बडे से बड़े कष्ट भी सहज ही दूर हो जाते हैं और इस संसार में सुख भोगकर मृत्यु उपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होता है। भक्त इस चक्र में अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए मां कात्यायनी की आराधना करते हैं।


ऐसा है मां कात्यायनी का है दिव्य स्वरूप

महर्षि कात्यायन के घर कन्या रूप में जन्म लेने के कारण इनका नाम कात्यायनी पड़ा। इनका स्वरूप अत्यन्त दिव्य तथा सुवर्ण की आभा वाला है। चार भुजाधारी मां कात्यायनी सिंह पर सवार हैं। अपने एक हाथ में तलवार और दूसरे में अपना प्रिय पुष्प कमल लिए हुए हैं। अन्य दो हाथ वरमुद्रा और अभयमुद्रा में हैं।


ऐसे करें पूजा

नवरात्रि के छठे दिन सुबह स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त होकर मां कात्यायनी की विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए। उन्हें पुष्प, माला, धूप, दीप आदि अर्पित कर उनके निम्न मंत्र का जप करना चाहिए। पूजा के पश्चात मां को शहद का भोग लगाना चाहिए। इनकी पूजा के साथ ही भगवान शिव की भी पूजा करनी चाहिए। इनकी पूजा का मंत्र निम्न प्रकार है-


या देवी सर्वभूतेषु मां कात्यायनी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।


मां कात्यायनी की पूजा से व्यक्ति सभी प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है और उसकी हर इच्छा पूरी होती है। जिन लोगों का विवाह नहीं हो रहा, कात्यायनी की पूजा से उनका विवाह भी शीघ्र ही होता है।
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मां कालरात्रि की पूजा से तुरंत दूर होता है तंत्र-मंत्र तथा मूठ का असर
मां आद्यशक्ति के सप्तम रूप कालरात्रि की नवरात्रि में सातवें दिन पूजा की जाती है। काल का भी नाश करने के कारण ही इन्हें कालरात्रि कहा जाता है। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होता है। अतः इस दिन आज्ञा चक्र में एकाग्र होकर मां का ध्यान कर उनकी पूजा करने से समस्त प्रकार के दुख, संताप दूर होते हैं। मां अपने भक्तों की आराधना से प्रसन्न होकर उनकी ग्रह बाधाओं के साथ-साथ अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि व अन्य सभी प्रकार के भय को भी दूर कर देती हैं।

भयावह परन्तु शुभ हैं इनका स्वरूप
मां कालरात्रि का शरीर गहन अंधकार की भांति स्याह काला है। सिर के बाल बिखरे हुए तथा गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। गर्दभ (गधे) पर सवार मां के तीन नेत्र सत, रज तथा तमोगुण का प्रतीक हैं। ये महाकाली की ही भांति अत्यन्त क्रोधातुर दिखाई देती है परन्तु अपने भक्तों को ये सदैव शुभ फल देती है जिससे कारण इनका एक नाम शुभंकरी भी है।

ऐसे करें मां कालरात्रि की पूजा
नवरात्रि के सातवें दिन सुबह स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त होकर मां कालरात्रि की आराधना करें। इनकी प्रतिमा अथवा चित्र को लकड़ी की चौकी पर विराजमान करना कर यम, नियम व संयम का पालन करते हुए उन्हें मां को पुष्प, दीपक, धूप और नैवेद्य आदि अर्पण कर निम्न मंत्रों में से किसी भी एक मंत्र का कम से कम 108 बार जप करें।

या देवी सर्वभूतेषु मां कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
ॐ कालरात्र्यै नम:।।
ॐ फट् शत्रून साधय घातय ॐ।।

इस प्रकार पूजा तथा मंत्र जाप के बाद मां कालरात्रि को प्रसाद अर्पण करें। इनकी आराधना से समस्त प्रकार के तंत्र-मंत्र, मूठ आदि प्रयोगों को असर समाप्त हो जाता है। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके नाम स्मरण मात्र से ही दूर भाग जाते हैं। ये व्यक्ति की कुंडली में मौजूद ग्रह बाधाओं को भी शांत कर भक्तों ी समस्त समस्याओं का तुरंत निराकरण करती है।
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माता महागौरी की आराधना से दूर होते हैं सब संकट, मिलता है मनचाहा वर

 नवरात्रि के आठवें दिन आद्यशक्ति के आठवें स्वरूप मां महागौरी की पूजा की जाती है। इनके सभी वस्त्र तथा आभूषण श्वेत होने के कारण इन्हें श्वेताम्बरघरा भी कहा जाता है। शिव पुराण के अनुसार पार्वती रूप में उन्होंने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। इस वजह से माता का पूरा शरीर काला पड़ गया था। उनकी तपस्या से प्रसन्न भगवान शिव ने माता के काले शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमणि बना दिया। इसी से इनका नाम महागौरी पड़ा।

ऐसा है इनका स्वरूप
मां महागौरी साक्षात अन्नपूर्णा स्वरूप तथा अत्यन्त सौम्य हैं। इनका स्वरूप बहुत ही उज्ज्वल कोमल श्वेतवर्णा और श्वेत वस्त्रधारी चार भुजाओं वाली मां गौरी अपने दो हाथों में त्रिशूल और डमरू लिए हैं जबकि अन्य दो हाथों से वर और अभय प्रदान करती हैं। ये सफेद वृषभ यानी बैल पर सवार हैं। ये धन, वैभव तथा समस्त प्रकार के ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली हैं।

ऐसे करें पूजा
नवरात्रि के आठवें दिन स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त होकर मां का ध्यान करते हुए उन्हें धूप, दीप, पुष्प, इत्र आदि अर्पित करें। तत्पश्चात् उनके निम्न मंत्र का न्यूनतम 108 बार या अधिक से अधिक जितना हो सके, उतना जप करें। इसके बाद उन्हें नैवेद्य आदि अर्पण कर उनका आशीर्वाद लें।

या देवी सर्वभूतेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

इनकी पूजा से कुंवारी लड़कियों को मनचाहे पति की प्राप्ति होती है जबकि जो पुरुष इनकी पूजा करते हैं, उनका पूरा जीवन सुखमय बीतता है। इनके भक्तों को न तो इस जीवन और न ही आगे की जीवन में किसी प्रकार के कोई कष्ट सहने पड़ते हैं, वरन उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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अष्टसिद्धियां तथा सभी प्रकार के ऐश्वर्य देती है मां सिद्धिदात्री की आराधना
  
नवरात्रि के अंतिम अर्थात नवें दिन माता सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। इनकी पूजा से भक्तों को अष्टसिद्धियां प्राप्त होती हैं तथा वह स्वयं ही ईश्वर के समान बन जाता है। इस जगत में ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे मां सिद्धदात्री का भक्त न कर सकें। इसी से इन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है।

ऐसा है मां सिद्धिदात्री का स्वरूप
आद्यशक्ति का सिद्धिदात्री स्वरूप गौरवर्ण, चतुर्भुज वाला व अत्यंत सौम्य है। ये सिंह पर सवार है तथा इनका आसन कमल है। इन्होंने अपने चारों हाथों में क्रमशः कमल, शंख, गदा व सुदर्शन चक्र धारण किए हुए हैं।

ऐसे करें पूजा
नवदुर्गाओं के अन्य स्वरूपों की ही भांति सिद्धिदात्री की भी पूजा की जाती है। परन्तु इन्हें पूजा में नवाह्न प्रसाद, नवरस युक्त भोजन, नौ किस्म के फूल और नौ प्रकार के फल अर्पित करने चाहिए। पूजा में सबसे पहले कलश और उसमें मौजूद देवी देवताओं की पूजा करें। इसके बाद मां के निम्न मंत्र का न्यूनतम 108 बार या अधिक से अधिक जितना हो सके, उतना जप करें। पूजा के अंत में देवी के बीजमंत्र "ऊँ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमो नम:" से कम से कम 108 बार आहुति दें।

या देवी सर्वभूतेषु मां सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।

इनकी आराधना से व्यक्ति को अणिमा, महिमा,गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व तथा वशित्व ये आठ सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त 18 अन्य सिद्धियां भी उसे प्राप्त होती है। इनकी पूजा से व्यक्ति के कार्यों में आ रहे सारे व्यवधान समाप्त हो जाते हैं और उसकी सभी मनोकामनाएं स्वतः ही पूर्ण होती चली जाती हैं।


आचार्य अनुपम जौली www.astrologyrays.com

Saturday, June 24, 2017

गुप्त नवरात्री भाग 1


नवरात्रि के प्रथम दिन करें मां शैलपुत्री की पूजा, पूर्ण होगी हर मनोकामना


नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा 'शैलपुत्री' की आराधना से ही नवरात्रि पूजा का शुभारंभ होता है। इन्हें माँ सती का अवतार माना जाता है। माँ सती द्वारा प्रजापति दक्ष के यज्ञ में अपने शरीर को भस्म करने के बाद उन्होंने पर्वतराज हिमालय के घर पुत्रीरूप में जन्म लिया था। इसी से इन्हें शैलपुत्री कहा जाता है। नवरात्रि के प्रथम दिन योगीजन अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित कर मां भगवती की आराधना करते हैं।

पूर्वजन्म की ही भांति इस जन्म में भी वे भगवान शिव की अर्द्धांगिनी बनी। वृषारूढ़ मां शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। इनकी पूजा से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होकर स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इनका ध्यान मंत्र तथा आव्हान मंत्र निम्न प्रकार है-

वन्दे वञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढाम् शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।

ऐसे करें पूजा
सर्वप्रथम पूजा-स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ धुले हुए वस्त्र पहन कर अपने भगवान गणेश, अपने ईष्टदेव, भगवान शिव तथा पितृदेव की पूजा करें। तत्पश्चात कलश में सप्तमृतिका यानी सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेंट करें और पांच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित करें। अब मां भगवती के महामंत्र  जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुतेका जप करते हुए उनका आव्हान करें। फिर मां की पूजा-अर्चना कर उनके उपरोक्त "वन्दे वञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम् वृषारूढाम् शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्" का 108 बार जप करें।

मां को प्रसाद आदि अर्पण कर उनसे अपनी मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना करें। शैलपुत्री की पूजा से भक्त समस्त कष्टों से मुक्त होकर स्वर्गलोक को प्राप्त करता है।
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नवरात्रि के दूसरे दिन होती है मां ब्रह्मचारिणी की पूजा, मिलती है सिद्धियां


नवरात्रि के दूसरे दिन नवदुर्गाओं में द्वितीय माँ ब्रह्मचारिणी का आव्हान तथा पूजा की जाती है। इस दिन योगीजन अपने मन को स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित कर माँ भगवती की आराधना करते हैं तथा उनसे मनवांछित वरदान प्राप्त करते हैं।

तपस्वी स्वभाव की होने के कारण इनका नाम ब्रह्मचारिणी पड़ गया। इन्होंने दाएं हाथ में जप माला तथा बाएं हाथ में कमंडल धारण किए हुए है। अपने इस रूप में आद्यशक्ति भक्तों तथा सिद्धों को विजय तथा सर्वत्र सिद्धी का वरदान देती है और उनके सभी कष्टों का सहज ही निराकरण कर देती है। इनकी उपासना से भक्त में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार तथा संयम की वृद्धि होती है। जीवन में आने वाले सभी संघर्षों में वह सहज ही विजय प्राप्त कर लेता है।

ऐसे करें पूजा
सुबह स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त होकर गणेशजी, भगवान शिव, अपने ईष्टदेव, पितृदेव तथा गुरु की वंदना करें। उसके पश्चात मां ब्रह्मचारिणी की पूजा कर उनके निम्नलिखित मंत्र का 108 बार जप करें। अंत में उन्हें भोग समर्पित कर स्वयं भी ग्रहण करें।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

इनकी पूजा से भक्तजन इस लोक में समस्त प्रकार के सुख भोगकर मृत्युपरांत मोक्ष को प्राप्त करते हैं। वो अपने तपोबल से दुनिया में हर चीज प्राप्त कर सकते हैं।
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नवरात्रि के तीसरे दिन होती है मां चंद्रघंटा की पूजा, मिलती है शत्रुओं से मुक्ति


नवदुर्गाओं में तृतीय मां चंद्रघंटा की पूजा नवरात्रि के तीसरे दिन की जाती है। इस दिन योगीजन अपने मन को मणिपूर चक्र में स्थित कर भगवती आद्यशक्ति का आव्हान करते हैं और विभिन्न प्रकार की सिद्धियां प्राप्त करते हैं। मां चंद्रघंटा की पूजा से भक्तों का इस लोक तथा परलोक दोनों में ही कल्याण होता है।

मां चंद्रघंटा का स्वरूप अत्यंत शांतिदायक तथा कल्याणकारी है। इनके मस्तक पर अर्द्धचन्द्र विराजमान है व इनके हाथ में भयावह गर्जना करने वाला घंटा है जिस कारण इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। इनके शरीर का वर्ण स्वर्ण के समान सुनहरा चमकीला है। इनके दस हाथ में हैं जिनके द्वारा भगवती ने विभिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं। इनका वाहन सिंह है तथा इनके घंटे की सी भयानक ध्वनि से दानव, दैत्य आदि भयभीत रहते हैं और देवताजन तथा मनुष्य सुखी होते हैं।

ऐसे करें पूजा
सुबह स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त होकर मां भगवती की पूजा करें तथा उनका आव्हान कर उन्हें पुष्प, पान, कुंकुम आदि समर्पित करें। तत्पश्चात उनके निम्नलिखित मंत्र का 108 बार जप कर उन्हें प्रसाद चढ़ाएं।

पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते महयं चन्दघण्टेति विश्रुता।।

इनकी पूजा से भक्तों के सभी शत्रु स्वतः ही शांत हो जाते हैं और उन्हें चिरायु, आरोग्यवान, सुखी तथा संपन्न होने का वरदान देती है। उनका ध्यान तथा मनन करने से व्यक्ति इस लोक में सुख भोगकर अंतकाल में जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है।
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नवरात्रि के चौथे दिन करें मां कूष्माण्डा की पूजा, मिलेंगी अष्टसिद्धी, नवनिधियां


नवरात्रि के चौथे दिन मां कूष्माण्डा का आव्हान व उनकी पूजा की जाती है। इस दिन साधक का मन अनाहत चक्र में स्थित होता है। मां कूष्मांडा ही सृष्टि की आदिस्वरूपा आद्यशक्ति है। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। इनकी आराधना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है।

अपनी मंद, हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण भी इन्हें कूष्माण्डा देवी के रूप में पूजा जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा को कुम्हड़ कहते हैं। कुम्हड़े की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी माँ कूष्माण्डा कहलाती हैं।
इनका शरीर सूर्य के समान दैदीप्यमान तथा कांतिवान है। अष्टभुजा धारी मां कूष्मांडा सिंह की सवारी करती है। इन्होंने अपने आठ हाथों में क्रमशः जपमाला, कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा धारण की हुई है। इनके तेज से दसों दिशाएं प्रकाशित हो रही है। इनकी कृपा से असंभव कार्य भी सहज ही संभव हो जाते हैं।

ऐसे करें पूजा
सुबह स्नान-ध्यान आदि से निवृत्त होकर मां भगवती का आव्हान करें। उन्हें पुष्प, सुगंध, पान आदि समर्पित कर उनकी पूजा-अर्चना करें। तत्पश्चात उनके निम्नलिखित मंत्र का 108 बार जप कर उन्हें हलवे का भोग चढ़ाएं। आपके मन में जो भी इच्छा हो, उसे मां से पूर्ण करने की प्रार्थना करें।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

मां कूष्माण्डा की पूजा से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इनकी उपासना से अष्टसिद्धियों तथा नवनिधियों को प्राप्त कर व्यक्ति के समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु-यश में वृद्धि होती है।



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Aacharya Anupam Jolly, www.astrologyrays.com

Friday, June 23, 2017

जन्म लग्न से जानिये अपने बारे में

जन्म लग्न से जानिये अपने बारे में

मेष - मेष लग्न में जन्म लेने वाला चुस्त-चालाक तथा चंचल नेत्रों वाला, सर्वदा रोगी, धर्म के कु  छ नियम करने वाला, कृतघ्न, राज से सम्मन-प्राप्त, स्वस्त्री-निरत तथा दान देने वाला होता है। नदी-तालाब आदि से डरने वाला और कठिन कार्य करने वाला होता है। इस पुरुष को जन्म से पहले मास में कष्ट, वर्ष 13 में अल्प, 18 में जल से कष्ट, 50 में अंग-रोग, वर्ष 60 में कठिन बीमारी, इसके पश्चात् 75 वर्ष तक जीवित रहता है। अपनी जिंदगी में उन्नति के साधनों की तरफ झगड़ा करके ही तरक्की करता है। भातृ-सुख और पितृ-सुख पूर्ण नहीं होता है। प्रत्येक कार्य को हिम्मत के साथ कर लेने वाला होता है।

वृष - वृष लग्न में जन्म लेने वाला रणधीर, बली, धनिक, तेजस्वी, दान-दाता तथा विलास के सुखों को भोगने वाला होता है। अपनी जिंदगी में अच्छे-अच्छे मित्र इसे मिलते हैं। पुत्र और विद्या दोनों उत्तम प्राप्त करता है। विलासिता के कारण पर दारा चोरी में मस्त रहता है। वर्ष 3,6,8,33,52, 6263 में अल्प भय होता है। यदि इन वर्षों में अपने जीवन को पार करे तो 85 वर्ष की आयु होती है। अपने हठ से दृढ़ रहता है। लड़ाई-झगड़े तथा मुकदमों में दिक्कतें उठाना, आराम से रहना इसके स्वाभाविक कर्म हैं।

मिथुन - मिथुन लग्न में जन्म लेने वाला चंचल नेत्र वाला, गायक, यशगान, गुणी और चतुर, श्रेष्ठ बुद्धि वाला, न्यायप्रिय और मीठा शब्द कहने वाला होता है। कष्ट महीना 6,10,11,18,24,53,63 में अल्प भय होता है। इसके पश्चात् 75 वर्ष की आयु होती है। यह स्वभाव का नरम परन्तु दिल का मजबूत होता है। जहाँ यह प्रत्येक कार्य ईमानदारी से करता है वहाँ अपने प्रत्येक भाव को दूसरे पर जाहिर भी नहीं करता। विद्या द्वारा इसे सम्मान प्राप्त होता है और प्राय: सुख-दु:ख में यह समान भाव से रहता है। संतान-सुख मध्यम और आपसी विवाद इसको हर समय घेरे रहते हैं।

कर्क - कर्क लग्न में जन्म लेने वाला शूरवीर, धनी, गुरु-सेवक, परम चतुर, पहले शरीर वाला, विदेश में रहने वाला, क्रोधी, दु:खी, श्रेष्ठ मित्रों वाला, अपने घर के मनुष्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ बुद्धि वाला तथा तस्तक का रोगी होता है। कष्ट दिन 11 मास, 9 वर्ष1, 7, 9, 13, 16, 20, 27, 35, 45, 55, 61 में अल्प भय। इसके इसके पश्चात् 70 वर्ष की आयु होती है। यह अपनी जिन्दगी में कभी चंचलता और कभी शांत स्वभाव के कारण पहेलियों में उलझा हुआ रहता है।

सिंह - सिंह लग्न में जन्म लेने वाला क्षमा-शील, मांस-भक्षी, देश-देशांतर घूमने वाला, श्रेष्ठ मित्रों वाला, शीघ्र क्रोधित होने वाला, पिता का प्रिय, व्यसनी, प्रत्येक कार्य में चतुर और संसार में प्रसिद्ध होता है। कष्ट वर्ष 1,10,15,25,45,51,61 में अल्प भय, इसके पश्चात यह 65 वर्ष तक जीता है। यह मनुष्य अपने बल-भरोसे तथा गर्व से छोटे कार्यों की तरफ ध्यान न देकर बड़े-बड़े कामोंं को करने में सफल होता है। यह खाद्य सामग्री तथा वस्त्रादि के व्यापार से अपने जीवन में उन्नति करने वाला होता है।

कन्या - कन्या लग्न में जन्म लेने वाला विलासी, धनी, सुन्दर, चतुर, दानी, कवि, सज्जन-प्रिय, विदेश में रहने वाला तथा धर्मनिष्ठ होता है। कष्ट मास 3, वर्ष 3, 13, 26, 33, 43 में अल्प भय। इसके अनन्तर 84 वर्ष तक जीता है। यह पुरुष अपनी जिन्दगी में जहां अच्छा सम्मान प्राप्त करता है, वहाँ अनेक कोशिशें करने पर भी धन एकत्र नहीं कर पाता। उसका व्यापार आम बैंक आदि से संबंधित रहता है। इसकी पवित्र आत्मा होते हुए भी यह किसी से विशेष प्रेम नहीं करता।

तुला - तुला लग्न में जन्म जेने वाला मनुष्य दयाशील, चंचल नेत्र वाला, देव-पूजक, प्रवासी, मित्रों का प्रिय और बिना किसी कारण क्रोध करने वाला होता है। कष्ट मास 4, वर्ष 1, 4, 21, 33 41, 51, 61 में अल्प भय। इसके पश्चात् 85 वर्ष तक जीवित रहता है। यह पुरुष अपनी जिन्दगी में कभी सुखी नहीं रहता है। प्रतिदिन इसे नवीन घटनाएं पार करनी होती हैं, परन्तु मानसिक शक्ति प्रबल होने के कारण प्रत्येक समस्या को शान्तिपूर्वक एवं न्याय के द्वारा सुलझा लेता है।
 
वृश्चिक - वृश्चिक लग्न मेें जन्म लेने वाला पापी, पीले नेत्र वाला, दूसरे की स्त्री से प्रेम करने वाला, अभिमानी, अपने कुटुम्ब के लिए कठोर, माता-पिता को दु:ख देने वाला, अभिमानी, ठगी और चोरी की विद्या में निपुण और बाल्यावस्था से ही परदेश में रहने वाला होता है। कष्ट मास 2, वर्ष 3, 7, 13, 32, 35, 45 में अल्प भय। पूर्ण आयु 75 वर्ष दो माह की होती है। यह मनुष्य अपनी जिंदगी में बहादुरी से धन एकत्र करता है। ससुराल पक्ष से तथा नातेदारों और कानूनी कामों से भी यह धन प्राप्त करता है।

धनु - धनु लग्न में जन्म लेने वाला मनुष्य सत्वगुण वाला, सत्यवक्ता, शूरवीर, धनी, सुन्दर स्त्री वाला, मीठा बोलने वाला, साइंस और चित्रकला में प्रवीण और स्थूल शरीर वाला होता है। कष्ट मास 5, वर्ष 3, 9, 11, 16, 24, 36, 47, 57, 69 में अल्प भय। इसके बाद 85 वर्ष जीता है। यह मनुष्य गुप्त रहस्यों को जानने वाला, भविष्यवेत्ता, विश्वासपात्र और शांत स्वभाव का होता है। यह मनुष्य 22 साल से पहले भी विशेष सुखी नहीं रहता। इसके बाद अपने परिश्रम से धन इकट्ठा करके सुख भोगने वाला होता है।

मकर - मकर लग्न में जन्म  लेने वाला मनुष्य पंडित, संगीत-प्रिय, मातृ-भक्त, दयाशील, दानी, अधिक कुटुम्ब वाला, अपने कुल में हीन और स्त्रियों के वश में रहने वाला होता है। कष्ट मास 3 वर्ष, 1, 3, 10, 32, 43, 51, 57 में अल्प भय होता है। इसके अनन्तर 73 वर्ष तक जीवित रहता है। यह आदमी अपनी शूरवीरता, दृढ़ता और परिश्रम से बड़े से बड़े काम को करने में समर्थ होता है। जीवन के प्रत्येक रास्ते में शंका करता है, जिसके कारण दिल प्रसन्न नहीं रहता है। शत्रु भी सदा इसको दबाने की ताक में रहते हैं।

कुम्भ - कुम्भ लग्न में जन्म लेने वाला मनुष्य आलसी, दानी, हाथी-घोड़ा आदि का स्वामी, सरल स्वभाव, पुण्यवान, निडर, प्रेम से यश प्राप्त करने वाला, धन और विद्या मेें परिश्रम करने वाला और दूसरों के उपकार को मानने वाला होता है। कष्ट दिन 7, कष्ट वर्ष 1, 6, 18, 32 में अल्प भय। पूर्ण आयु 61 वर्ष की होती है। यह आदमी चंचल स्वभाव के कारण अनेक फरेबबाजियों से धन एकत्र करने तथा अपना हौसला बढ़ाने के लिए अनेक तरकीबें सोचता है, परन्तु शत्रुओं की गुप्त चालों के कारण यह किसी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर पाता।


मीन - मीन लग्न में जन्म लेने वाला आदमी गंभीर, शूरवीर, लोभी, अपने वंश की वृद्धि करने वाला, देव-पूजक, संगीत में चतुर एवं अपने कुटुम्बियों से प्रेम करने वाला होता है। कष्ट वर्ष 1, 9, 18, 33, 40 में होता है। पूर्ण 61 वर्ष तक जीता है। यह आदमी जिंदगी में विशेष सम्मान प्राप्त करने वाला तथा बहुत ही सरल स्वभाव का होता है। संगीत, साहित्य, कला-कौशल की विद्वता के साथ उच्च लेखक भी होता है। यह प्रत्येक कारोबार में धन कमाने में लगा रहता है।